संस्कृत केवल एक भाषा नहीं, अपितु समग्र जीवन की महान् पावन संस्कृति है — “आनन्दा हिमानी स्वीडन”

ग्रेटर नोएडा ( जीएन न्यूज, संवादददाता ) ।

विशेष साक्षात्कारस्वीडन निवासी संस्कृत-रसिका, आनन्दा हिमानी  से संवाद


प्रश्न 1 :

आपको भारत-वर्ष तथा इसकी सांस्कृतिक परम्परा कैसी प्रतीत होती है?

उत्तर :

भारत-वर्ष मुझे अत्यन्त प्रिय है। आप सब वास्तव में धन्‍यभागी हैं कि आपका जन्म इस ऋषि-भूमि, इस पुण्य-प्रदेश में हुआ है। न जाने कितनी बार मन में यह भाव उदित हुआ कि काश! मेरा जन्म भी इसी पावन धरती पर होता। मेरे लिए भारत केवल भूगोल नहीं—यह मेरी आत्मा है, मेरे अस्तित्व का प्राण है।

प्रश्न 2 :

ऐसा कौन-सा कारण था जिसने आपको भारत और इसकी संस्कृति के प्रति विशेष अनुरक्त किया?

उत्तर :

एक अवसर पर मैंने अनेक लोगों को सामूहिक रूप से ‘ॐ’ का उच्चारण करते हुए देखा। उस समय ओंकार-नाद ने मेरी आत्मा को जिस प्रकार स्पर्श किया, वह अव्यक्त है। उसी नाद में मुझे वह दिव्यता अनुभव हुई जिसने मेरे अंतर्मन को भारत की संस्कृति से अविच्छिन्न रूप से जोड़ दिया।

प्रश्न 3 :

क्या उसके पश्चात् आपने भी ओंकार-जप का अभ्यास आरम्भ किया?

उत्तर :

जी हाँ, मैं नित्य ओंकार-जप करती हूँ। ओंकार का नाद सम्पूर्ण जगत् में दिव्य फलदायी माना गया है। यह न केवल मन को प्रसन्न करता है, अपितु चेतना को भी विशुद्ध करता है।

प्रश्न 4 :

नियमित जप से आपको क्या-क्या परिवर्तन अनुभव हुए?

उत्तर :

ओंकार-जप ने मेरे जीवन में अद्भुत परिवर्तन किए। मैं पूर्व की अपेक्षा अधिक आनन्दित रहने लगी हूँ। दुःख की घड़ी में भी मन में एक अचंचल शांति बनी रहती है। आत्मबल में वृद्धि हुई है और जीवन के प्रति दृष्टि अधिक उज्ज्वल हो गयी है।

प्रश्न 5 :

योग तथा प्राणायाम के संदर्भ में आपके क्या अनुभव हैं?

उत्तर :

योग और प्राणायाम शरीर तथा मन दोनों के लिए अमोघ औषधि हैं। इनके अभ्यास से न केवल शक्ति की प्राप्ति होती है, अपितु मन में दिव्य प्रसन्नता भी उत्पन्न होती है। योग वास्तव में जीवन को जीने की एक महान कला है; यह शरीर, मन और आत्मा को परस्पर सामंजस्य प्रदान करता है।

प्रश्न 6 :

संस्कृत भाषा आपको इतनी प्रिय क्यों है? आपका उच्चारण अत्यन्त शुद्ध है—यह कैसे सम्भव हुआ?

उत्तर :

संस्कृत का प्रथम शब्द मैंने ओंकार-नाद के रूप में ही सुना था। एक ध्यान-योग शिविर में सभी साधकों को शान्त भाव से ‘ॐ’ उच्चारित करते देखकर मैं अत्यन्त प्रभावित हुई। वहीं से संस्कृत के प्रति मेरे मन में विशिष्ट अनुराग उत्पन्न हुआ।
संस्कृत उच्चारण में दिव्य कम्पन उत्पन्न होता है जो वातावरण की भी शुद्धि करता है। वेद-मंत्रों के रहस्य को समझने हेतु संस्कृत का ज्ञान अनिवार्य है। इसलिए मैंने संस्कृत को अपनाया।

प्रश्न 7 :

संस्कृत-अध्ययन के मार्ग में आपको कौन-सी कठिनाइयाँ आईं? आपने संस्कृत कहाँ से सीखी?

उत्तर :

स्वीडन में संस्कृत-विद्वान उपलब्ध नहीं थे, अतः मेरी जिज्ञासा ने ही मुझे भारत-वर्ष की ओर अग्रसर किया। जब मेरी आयु 19 वर्ष थी, तब मैं अध्ययन हेतु गंगोत्री आयी। वहाँ किसी ने ‘संस्कृत भारती’ संगठन का उल्लेख किया। तत्पश्चात् मैं बंगलौर गई और वहाँ छह महीनों तक सतत् संस्कृत-अध्ययन किया।
मेरे लिए संस्कृत केवल भाषा नहीं—यह जीवन-पद्धति है, यह चिन्तन है, यह आचरण है।
 

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